बदले हो तुम, तो है क्या, मैं भी बदल जाऊँगी।
दायरा तोड़ कहीं और निकल जाऊँगी।
एक चट्टान हूँ मैं, मोम नहीं याद रहे।
जो छुअन भर से तुम्हारी, ही पिघल जाऊँगी।
जब बिना बात के नाराज़ हो दरका दर्पण।
मेरा चेहरा है वही, क्यों मैं दहल जाऊँगी?
मैं तो बेफिक्र थी, मासूम सा दिल देके तुम्हें।
क्या खबर थी कि मैं यूँ, खुद को ही छल जाऊँगी।
वक्त पर होश मुझे आ गया अच्छा ये हुआ।
ठोकरें खा के मुहब्बत में सँभल जाऊँगी।
दर अगर बंद हुआ एक, तो हैं और अनेक।
चलते-चलते ही नए दौर में ढल जाऊँगी।
किसी गफलत में न रहना, कि अकेली हूँ सुनो।
साथ मैं एक सखी लेके गज़ल जाऊँगी।
जो मुझे आज तलक, तुमने दिये हैं तोहफे।
वे तुम्हारे ही लिए छोड़ सकल जाऊँगी।
‘कल्पना’ सोच के रक्खा है जिगर पर पत्थर।
पी के इक बार जुदाई का गरल जाऊँगी।
-कल्पना रामानी
2 comments:
जब बिना बात के नाराज़ हो दरका दर्पण।
मेरा चेहरा है वही, क्यों मैं दहल जाऊँगी?
....वाह...बहुत सार्थक और उम्दा प्रस्तुति...
बहुत लाज़वाब अभिव्यक्ति आदरणीय बहुत सुन्दर
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