रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Monday, 2 March 2015

रंग नए जब भू पर छाएँ, फागुन होता

रंग नए जब भू पर छाएँ, फागुन होता
संग प्रेम की पुरवा लाएँ, फागुन होता

बगिया से रस-गंध-रूप की दावत पाकर
कलियों पर मधुकर मंडराएँ, फागुन होता

बौर-भार से लदी डालियाँ चूम धरा को
अपनी किस्मत पर इतराएँ, फागुन होता

घुटी भंग से भरे घटों में घुल-मिल जाने 
गुल पलाश के दौड़े आएँ, फागुन होता

कंठ फुलाकर काग-कोकिला, मोर-पपीहे 
गीतों से आकाश गुँजाएँ, फागुन होता

मिलते ही संदेश, प्रणय-रस घुली हवा से
प्रियम, प्रिया से मिलने धाएँ, फागुन होता

पिचकारी, नूपुर, गुलाल, गुब्बारे जब मिल
साथ “कल्पना” पर्व मनाएँ, फागुन होता 

-कल्पना रामानी    

2 comments:

surenderpal vaidya said...

वाह, बहुत खूबसूरत गज़ल। होली की हार्दिक बधाई।

ashu said...

अनूठे शब्द का चुनाव, लय, उत्क्रिस्ट संयोजन, मधुर भाव ------मैं इसे ग़ज़ल नहीं मानता इसको अगर किसी वैसे आदमी को सुनाई जाये जो देख नहीं सकते, उनके सामने जो तस्वीर उभरेगी उसे आनद से भाव विभोर कर देगा, इसको पढके और सुनके ऐसा लगता है जैसे हम होली के रंग में दुबे हों. मैं तो इस कला को कोई नाम नहीं दे सकता नहीं शब्दों में बांधकर इसके महत्व को सीमित नहीं करना चाहता. मुझमे इतना ज्ञान नहीं की फुल की खुसबू की परिभाषा दे सकूँ.?

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