वसुंधरा
करे पुकार, मीत जागते रहो
कि
लौट जाए ना बहार, मीत जागते रहो
उमड़
रहे हैं उपवनों में, कंटकों के काफिले
करें
न कलियों पर प्रहार, मीत जागते रहो
समंदरों
की सैर को सँवर रहीं सुनामियाँ
निगल
न जाए तट को ज्वार, मीत जागते रहो
छलों-बलों को छोड़के, रखो दिलों
को जोड़के
न
टूट जाएँ नेह-तार, मीत जागते रहो
गला
ही घोंटते रहे, जो वोट करके वायदे
करें
न चोट बार-बार, मीत जागते रहो
चलो
न छाँह छीनकर,
छुड़ाके बाँह गाँव की
न
होगा कोई गमगुसार,
मीत जागते रहो
तरक्कियों
के दर कई, अखंड हो जो एकता
न
खंड-खंड हों विचार,
मीत जागते रहो
बनो
न खुद खुदा कि रूठ जाए रब-रसूल ही
न
बंद हों दुआ के द्वार, मीत जागते रहो
प्रलोभ-ज्वाल
देश को, न लील जाए “कल्पना”
जगो, उठो, तजो खुमार, मीत जागते रहो
-कल्पना रामानी
1 comment:
बहुत ही प्रेरक और सार्थक अभिव्यक्ति...बहुत सुन्दर
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