हुई
हैं गुलाबी, हठीली हवाएँ
चलो
मीत मिलजुल के होली मनाएँ
जो
बोनस में बेचैनियाँ बाँध लाए
उमंगों
के रंगों में उनको बहाएँ
तहाकर
झमेलों की बेरंग गादी
कि
मस्ती की सतरंगी चादर बिछाएँ
जो
पल-प्रीत लाया है चुन-चुन के फागुन
उन्हें
गीत की धुन बना गुनगुनाएँ
जिसे
ढूँढते हैं सितारों से आगे
ज़मीं
पर ही वो आज दुनिया बसाएँ
ये
दिन चार घर में नहीं बैठने के
निकल
महफिलों को मवाली बनाएँ
पलाशों
पे होता मगन मास फागुन
उन्हें
पाश में बाँध,
आँगन में लाएँ
वरें
यह विरासत नई पीढ़ियाँ ज्यों
उन्हें
होलिका की कहानी सुनाएँ
बसे!
‘कल्पना’ पर्व यादों के दिल में
यही
याद हो और सब भूल जाएँ
-कल्पना रामानी
1 comment:
क्या टिपण्णी करें जो भाव है उसमे डूब जाने के बाद कहाँ शब्द याद रह जाते हैं तारीफ करने को
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