खुदा से माँगा मेहर के सिवा कुछ और नहीं।
दुआएँ देती नज़र के सिवा कुछ और नहीं।
दुखा के गाँव का दिल चल दिये मिला लेकिन
दिलों से तंग शहर के सिवा कुछ और नहीं।
पिलाके नाग को पय, बाद पूज लो चाहे
मिलेगा दंश-ज़हर के सिवा कुछ और नहीं।
चमन को सींच लहू से है सोचता माली
गुलों की लंबी उमर के सिवा कुछ और नहीं।
लिया तो सौख्य नई पौध ने बुजुर्गों से
दिया है रंज-फिकर के सिवा कुछ और नहीं।
जवाबी तोहफे मिलेंगे हमें भी कुदरत से
सुनामी, बाढ़, कहर के सिवा कुछ और नहीं।
जो जानते ही नहीं, साज़, राग, उनके लिए
ग़ज़ल भी रूक्ष बहर के सिवा कुछ और नहीं।
विपन्न हैं जिन्हें दिखता हसीन दुनिया में
उदास शाम सहर के सिवा कुछ और नहीं।
कुछ ऐसा हो कि बसे “कल्पना” हरिक जन के
हृदय में प्रेमनगर के सिवा कुछ और नहीं।
-कल्पना रामानी
1 comment:
बहुत उम्दा !
गणपति वन्दना (चोका )
हमारे रक्षक हैं पेड़ !
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