हम सेवा-मुक्त होते ही क्या-क्या न बन गए।
अपने ही घर के द्वार के दरबान बन गए।
पूँजी लुटा दी प्यार में, कल तक जुटाई जो,
कोने में अब पड़े हुए सामान बन गए।
बरगद थे छाँव वाले कि वे आँधियाँ चलीं
छोड़ा जड़ों ने साथ यों, बेजान बन गए।
सोचा तो था कि दोस्त सभी होंगे आस-पास
पर जानते थे जो, वे भी अंजान बन गए।
होके पराया चल दिया, अपना ही साया भी,
तन्हाइयों में घुल चुकी, पहचान बन गए।
मझधार से तो जूझके आए थे हम मगर,
सीने को तान, तीर पे तूफान बन गए।
मन में तो है सवाल ये भी ‘कल्पना’ अहम
हम जानते हुए भी क्यों, नादान बन गए।
--कल्पना रामानी
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