हमसे रखो न खार,
किताबें कहती हैं।
हम भी चाहें प्यार,
किताबें कहती हैं।
घर के अंदर घर हो एक हमारा भी।
भव्य भाव संसार,
किताबें कहती हैं।
बतियाएगा मित्र हमारा नित तुमसे,
हँसकर हर किरदार,
किताबें कहती हैं।
खरीदकर ही साथ सहेजो,
जीवन भर,
लेना नहीं उधार,
किताबें कहती हैं।
धूल, नमी, दीमक से डर लगता हमको,
रखो स्वच्छ आगार,
किताबें कहती हैं।
कभी न भूलो जो संदेश मिले हमसे,
ऐसा हो इकरार,
किताबें कहती हैं।
सजावटी ही नहीं सिर्फ हमसे हर दिन,
करो विमर्श विचार,
किताबें कहती हैं।
सैर करो कोने कोने की खोल हमें,
चाहे जितनी बार,
किताबें कहती हैं।
रखो ‘कल्पना’ हर-पल हमें विचारों में
उपजेंगे सुविचार किताबें कहती हैं।
- कल्पना रामानी
1 comment:
आपकी इस अभिव्यक्ति की चर्चा कल रविवार (29-06-2014) को ''अभिव्यक्ति आप की'' ''बातें मेरे मन की'' (चर्चा मंच 1659) पर भी होगी
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आप ज़रूर इस चर्चा पे नज़र डालें
सादर
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