नज़र-नज़र
में जो हो जाए प्यार, क्या कहिए।
बिना
बसंत के छाए बहार, क्या कहिए।
सपन
सुहाने चले आते बंद, पलकों में
पलक
झपकते ही होते करार, क्या कहिए।
धड़कते
दिल हैं धुँधलकों में साँझ होते ही
चमकते
नैनों में जुगनू हज़ार, क्या कहिए।
घनेरी
घाम में हैं दीखते घने बादल
अमा
के चाँद से झरता उजार,
क्या कहिए।
गरम
हवा से है आती सुगंध फूलों की
भिगोता
जेठ भी बनकर फुहार,
क्या कहिए।
कदम
पहुँचते वहीं जिस जगह जुड़े दो दिल
मिलन
की चाह में चल बार-बार, क्या कहिए।
ये
“कल्पना” है अगन प्यार की भला कैसी
हो
दिन या रात न जाता ख़ुमार, क्या कहिए।
-कल्पना रामानी
5 comments:
बहुत उम्दा ग़ज़ल !
बहुत सुन्दर...
वाह ! क्या कहिए ...
बहुत सुन्दर ग़ज़ल कल्पना जी । हर शेर लाजबाब है।
अब क्या कहूं जी....कुछ कहूं तो क्या कहूं जी....शब्द आते हैं अटक जाते हैं..अब क्या कहूं जी...
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