पुरखों का नेक नाम, डुबाना तो है नहीं।
कल से मिला वो आज, गँवाना तो है नहीं।
दागी को देके वोट, जिताना तो है नहीं।
फिर से फिरंगी फौज, बुलाना तो है नहीं।
अंग्रेज़ियत को आज, करें किसलिए सलाम,
हिन्दी का हमको मान, घटाना तो है नहीं।
अच्छा है कोई ठौर, शहर ने नहीं दिया,
शहरों में जाके गाँव, बसाना तो है नहीं।
है भूख को ये आस, कि दो रोटियाँ मिलें,
रोटी का कोई पेड़, उगाना तो है नहीं।
मिल जाएगी ज़रूर, सही राह एक दिन,
आगे बढ़ाके पाँव, हटाना तो है नहीं।
सच्चाइयों के शूल, किसी को चुभा करें,
“अपना भी कोई खास, निशाना तो है नहीं”
है चाह “कल्पना” कि रहे शाद ये वतन,
बर्बाद करके जश्न, मनाना तो है नहीं।
--------कल्पना रामानी
1 comment:
वाह ... बहुत ही कमाल की ग़ज़ल ... हर शेर कुछ न कुछ कहता हुआ ... बहुत उम्दा ...
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