शुभ्र वसना दुग्ध सी, मन मुग्ध करती चंद्रिका।
तन सितारों से सजाकर, भू पे उतरी चंद्रिका।
चाँद ने जब बुर्ज से, झाँका भुवन की झील में
झिलमिलाती संग आई, सर्द सजनी चंद्रिका।
पात झूमें, पुष्प हरषे, रात ने अंगड़ाई ली
पाश में ले हर कली को, चूम चहकी चंद्रिका।
घन घनेरे, आसमाँ से, छोड़ डेरा छिप गए,
जब धरा पर शीत बदरी, बन के बरसी चंद्रिका।
पर्वतों से, वादियों से, पाख भर मिलती रही
सागरों की हर लहर से, खूब खेली चंद्रिका।
प्राणियों में प्रेम बोया, हर किरण से सींचकर
प्रेमियों सँग गुनगुनाई, रात रानी चंद्रिका।
हर कलम की बन ग़ज़ल, शब भर सफर करती रही
शबनमी प्रातः में चल दी, भाव भीगी चंद्रिका।
-कल्पना रामानी
4 comments:
बहुत सुन्दर शब्द संयोजन और नैसर्गिक भावों से भरी गजल।
हार्दिक शुभकामनायें कल्पना जी।
बेहद खूबसूरत शब्द और लयात्मक संयोजन
बधाई
आपकी इस उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की चर्चा कल रविवार (27-04-2014) को ''मन से उभरे जज़्बात (चर्चा मंच-1595)'' पर भी होगी
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आप ज़रूर इस ब्लॉग पे नज़र डालें
सादर
बहुत सुन्दर शब्द संयोजन ..उत्तम भाव
new post रात्रि (सांझ से सुबह )
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