थाम वैसाखी, सफर करने लगी है ज़िंदगी।
हर कदम हर वक्त, इक रथ पर चली रफ्तार के
उम्र की इस शाम में, थमने लगी है ज़िंदगी।
फूल बन खिलती रही, बाली उमर के बाग में
शूल बनकर अब वही, चुभने लगी है ज़िंदगी।
जो ठहाकों से हिलाती थी, दरो दीवार को
मूक हो सदियों से ज्यों, लगने लगी है ज़िंदगी।
कल धधकती ज्वाल थी अब, शेष हैं चिंगारियाँ
धीरे-धीरे राख बन, बुझने लगी है ज़िंदगी।
ख्वाब बन आती रही, रातों को गहरी नींद में
लेकिन अब ख्वाबों से ही, मिटने लगी है ज़िंदगी।
थी अडिग चट्टान जो, टुकड़े हुई अब टूटकर
"कल्पना" अब मौत से, डरने लगी है ज़िंदगी।
- कल्पना रामानी
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