मौज के मेले जहाँ हों, इक जहाँ ऐसा भी हो।
प्रेम बरसे बादलों से, आसमाँ ऐसा भी हो।
हों नदी सागर उफनते, और निर्झर वेगमय
शक्त पर्वत, उर्वरा भू, स्वर्ग हाँ, ऐसा भी हो।
पंछियों को डर न हो, वन जीव हों निर्भय सभी
क़ातिलों पर कहर बरपे, कुछ वहाँ ऐसा भी हो।
एक गुलशन सा दिखे, वो देश फूलों से भरा
स्नेह से सींचे उसे, इक बागबाँ ऐसा भी हो।
एकता की ले पताका, चल पड़ें लाखों क़दम
हर शहर, हर गाँव गुज़रे, कारवाँ ऐसा भी हो।
खुशनुमा जनतंत्र हो, सुख की बसी हों बस्तियाँ
साथ अपने हों सदा, हर आशियाँ ऐसा भी हो।
थामकर कर में क़लम, लिखते रहें नित छंद जन
दर्ज़ हों इतिहास में, उनके निशाँ ऐसा भी हो।
-कल्पना रामानी
1 comment:
वाह... बेहतरीन ग़ज़ल....
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