रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Saturday, 13 July 2013

गगन में छाए हैं बादल


गगन में छाए हैं बादल, निकल के देखते हैं।
उड़ी सुगंध फिज़ाओं में चल के देखते हैं।
 
सुदूर गोद में वादी की, गुल परी उतरी
प्रियम! हो साथ तुम्हारा, तो चल के देखते हैं।
 
उतर के आई है आँगन, बरात बूँदों की
बुला रहा है लड़कपन, मचल के देखते हैं।
 
अगन ये प्यार की कैसी, कोई बताए ज़रा
मिला है क्या, जो पतंगे यूँ जल के देखते हैं।
 
नज़र में जिन को बसाया था मानकर अपना
फरेबी आज वे नज़रें, बदल के देखते हैं।
 
चले तो आए हैं, महफिल में शायरों की सखी
अभी कुछ और करिश्में, ग़ज़ल के देखते हैं।
 
विगत को भूल ही जाएँ, तो कल्पनाअच्छा
सुखी वही जो सहारे, नवल के देखते हैं।

-कल्पना रामानी


Tuesday, 9 July 2013

विश्व में आका हमारे यश कमाना चाहते//गज़ल//





















वे सुना है चाँद पर बस्ती बसाना चाहते।
विश्व में आका हमारे यश कमाना चाहते।
 
लात सीनों पर जनों के, रख चढ़े  थे  सीढ़ियाँ,
शीश पर अब पाँव रख, आकाश पाना चाहते।
 
भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं,
दीन-दुखियों को निवाला, अब बनाना  चाहते।
 
बाँटते वैसाखियाँ, जन-जन को पहले कर अपंग,
दर्द देकर बेरहम, मरहम लगाना चाहते।
 
खूब दोहन कर निचोड़ा, उर्वरा भू को प्रथम,   
अब जनों के कंठ ही, शायद सुखाना चाहते।  
 
शहरियत से बाँधकर, बँधुआ किये ग्रामीण जन,  
निर्दयी, गाँवों की अब, जड़ ही मिटाना चाहते।  
 
सिर चढ़ी अंग्रेज़ियत, देशी  दफन कर बोलियाँ,
बदनियत फिर से, गुलामी को बुलाना चाहते।
 
देश जाए या रसातल, या हो दुश्मन के अधीन,
दे हवा आतंक को, कुर्सी बचाना चाहते।
 
कोशिशें नापाक उनकी, खाक कर दें "कल्पना",
खाक में जो स्वत्व जन-जन का मिलाना चाहते। 




-----कल्पना रामानी

Monday, 8 July 2013

भू को चली भागीरथी



  
स्वर्ग के सुख त्यागकर, भू को चली भागीरथी
पर्वतों की गोद से, होकर बही भागीरथी
 
कैद कर अपनी जटा में, शिव ने रोका था उसे
फिर बढ़ी गोमुख से हँसती, वेग सी भागीरथी

धाम कहलाए सभी जो, राह में आए शहर
रुक गई हरिद्वार में, द्रुतगामिनी भागीरथी

पाप धोए सर्व जन के, कष्ट भी सबके हरे
और पूजित भी हुई, वरदायिनी भागीरथी

अब युगों की यह धरोहर, खो रही पहचान है
भव्य भव की भीड़ में, बेदम हुई भागीरथी

घाट टूटे, पाट रूठे, जल प्रदूषित हो चला
कह रही है दास्ताँ, दुख से भरी भागीरथी

देवताओं की दुलारी, दंग है निज अपने हश्र से
मिट रहा अस्तित्व अब तो, घुट रही भागीरथी

कौन है? संजीवनी लाए, उसे नव प्राण दे
अमृता मृत हो चली, नाज़ों पली भागीरथी

जाग रे इंसान, कुछ ऐसे भगीरथ यत्न कर
खिलखिलाए ज्यों पुनः, रोती हुई भागीरथी
*अनुभूति में प्रकाशित*
---कल्पना रामानी
१७ जून २०१३
 
 

डालियाँ फूलों भरी//गज़ल//

  Photo

जब वनों में गुनगुनातीं, गर्मियाँ फूलों भरी।
पेड़ चम्पा की लुभातीं, डालियाँ फूलों भरी।

शुष्क भू पर, ये कतारों, में खड़े दरबान से,
दृष्ट होते सिर धरे ज्यों, टोपियाँ फूलों भरी।

पीत स्वर्णिम पुष्प खिलते, सब्ज़ रंगी पात सँग,
मन चमन को मोह लेतीं, झलकियाँ फूलों भरी।

बाल बच्चों को सुहाता, नाम चम्पक-वन बहुत,
जब कथाएँ कह सुनातीं, नानियाँ फूलों भरी।

मुग्ध कवियों ने युगों से, पेड़ की महिमा समझ,
काव्य ग्रन्थों में रचाईं, पंक्तियाँ फूलों भरी।

पेड़ का हर अंग करता, मुफ्त रोगों का निदान,
याद आती हैं पुरातन, सूक्तियाँ फूलों भरी।

सूख जाते पुष्प लेकिन, झूमती सुरभित पवन,
घूम आती विश्व में, ले झोलियाँ फूलों भरी।

मित्र ये पर्यावरण के, लहलहाते साल भर,
कटु हवाओं को सिखाते, बोलियाँ फूलों भरी।

यह धरोहर देश की, रक्खें सुरक्षित "कल्पना",
युग युगों फलती रहें, नव पीढ़ियाँ फूलों भरी।


*अनुभूति में प्रकाशित*http://www.anubhuti-hindi.org/sankalan/champa/anjuman/kalpana_rami.htm
-----कल्पना रामानी  

Thursday, 4 July 2013

नीम की शीतल हवा//गज़ल//


  

ग्रीष्म ऋतु में संगिनी सी, नीम की शीतल हवा
दोपहर में यामिनी सी, नीम की शीतल हवा

झौंसते वैसाख में, आती अचानक झूमकर
सब्ज़-वसना कामिनी सी, नीम की शीतल हवा

ख़ुशबुएँ बिखरा बनाती, खुशनुमाँ पर्यावरण
शांत कोमल योगिनी सी, नीम की शीतल हवा

खिड़कियों के रास्ते से, रात में आती सखी
मंत्र-मुग्धा मोहिनी सी, नीम की शीतल हवा

तप्त सूरज रश्मियों को,ढाल बनकर रोकती
भोर में इक रागिनी सी, नीम की शीतल हवा

बाँटती जीवन, बिठाती गोद में हर जीव को
प्यार करती भामिनी सी, नीम की शीतल हवा

रोग दोषों को मिटाती, फैलकर इसकी महक
बाग वन में शोभिनी सी, नीम की शीतल हवा


- कल्पना रामानी  

Tuesday, 2 July 2013

बरसात का ये मौसम,कितना हसीन है!


















बरसात का ये मौसम, कितना हसीन है!
धरती गगन का संगम, कितना हसीन है!
 
जाती नज़र जहाँ तक, बौछार की बहार
बूँदों का नृत्य छम-छम, कितना हसीन है!
 
बच्चों के हाथ में हैं, कागज़ की किश्तियाँ
फिर भीगने का ये क्रम, कितना हसीन है!
 
विहगों की रागिनी है, कोयल की कूक भी
उपवन का रूप अनुपम, कितना हसीन है!
 
झूलों पे पींग भरतीं, इठलातीं तरुणियाँ
रस-रूप का समागम, कितना हसीन है!
 
मित्रों का साथ हो तो, आनंद दो गुना
नगमें सुनाता आलम, कितना हसीन है!
 
हर मन का मैल मेटे, सुखदाई मानसून
हर मन का नेक हमदम, कितना हसीन है!


-कल्पना रामानी

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