गगन में छाए हैं बादल, निकल के देखते हैं।
उड़ी सुगंध फिज़ाओं में चल के देखते हैं।
सुदूर गोद में वादी की,
गुल परी उतरी
प्रियम! हो साथ तुम्हारा,
तो चल के देखते हैं।
उतर के आई है आँगन, बरात बूँदों की
बुला रहा है लड़कपन,
मचल के देखते हैं।
अगन ये प्यार की कैसी,
कोई बताए ज़रा
मिला है क्या, जो पतंगे यूँ जल के देखते हैं।
नज़र में जिन को बसाया था मानकर अपना
फरेबी आज वे नज़रें,
बदल के देखते हैं।
चले तो आए हैं, महफिल में शायरों की सखी
अभी कुछ और करिश्में,
ग़ज़ल के देखते हैं।
विगत को भूल ही जाएँ,
तो ‘कल्पना’ अच्छा
सुखी वही जो सहारे,
नवल के देखते हैं।
-कल्पना रामानी